पेंट की खुशबू
21वीं सदी की लोक कथाएं
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सैयद जावेद हसन
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अरसे बाद ये बात समझ में आई कि स्वाभिमान-आत्मसम्मान, अना और उसूल सबके लिए नहीं होते। इस तरह की आला इंसानी खूबियां उन लोगों को बिलकुल शोभा नहीं देतीं जिनके पैर तले न अपनी जमीन होती है और न सिर के ऊपर अपनी छत।
पैदायशी संघर्ष से जूझ रहे लोग जब इन खूबियों का मालिक बन जाते हैं, तब उन्हें खुद उम्र के आखिरी दौर में, और उनके बाल-बच्चों को शुरुआती जिंदगी में, अक्सर विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।
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कुछ खून का असर था और कुछ किताबों में दर्ज इबारतों का, मैंने भी अपने सिर पर स्वाभिमान का ताज सजा लिया था। मां-बाप बचपन में गुजर गए थे, अपने-पराये भी बिछड़ गए थे। फिर भी, स्वाभिमान का कीड़ा ऐसा था कि हर वक्त जेहन में सरसराता-सा महसूस होता था।
जब कभी कोई बड़ा मौका आता लेकिन सिर झुकाने की शर्त जुड़ी होती, स्वाभिमान का कीड़ा जेहन में सरसराने लगता।
कीड़ा इतनी शिद्दत से सरसराता कि पीछे हटना पड़ जाता।
आखिरकार, इतना पीछा हटता चला गया कि फिर आगे बढ़ने का मौका ही खत्म हो गया।
अब जो मौका बचा था, वो बस जरूरियाते जिंदगी को पूरा करने के लिए था।
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जब बड़े मौके थे और मैं फुल टाइमर था तब की बात ही कुछ और थी। मुझमें लोगों को कई खूबियां नजर आती थीं। मुझपर नजर पड़ते ही वे आपस में सरगोशियां करने लगते थे-
‘बहुत काबिल है।’
‘बहुत सलीकेमंद है।’
‘बहुत स्वाभिमानी है, बहुत खुद्दार है।’
‘सिर उठाकर चलता है।’
लेकिन जब बड़े मौकों से हाथ धोना पड़ा, तब लोगों की निगाहें भी बदल गईं और सरगोश्यिां भी बंद हो गईं।
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जिंदगी अब टुकड़ों में ‘कट’ रही थी।
अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग हैसियत से, मैं पार्ट टाइमर, कैजुअल और कंट्रैक्ट पर काम कर रहा था।
इन सब की आमदनी को मिलाकर, किसी तरह, जरूरियाते जिंदगी पूरी हो रही थी।
इसकी बुनियादी वजह ये थी कि एक साथ, एक बार में, इन तमाम जगहों से मेहनताना नहीं मिल रहा था। एक जगह से महीने के आरिखर में, एक जगह से अगले महीने के बीच में तो एक जगह से दो-तीन महीने बाद भी नहीं। लेकिन जरूरतें पैसा आने का इंतजार नहीं करतीं। वो अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती रहती हैं। कुछ जरूरतें अचानक सिर उठाकर खड़ी हो जाती हैं। जब जरूरतें पैसों से पूरी नहीं होती हैं, तब लोग ‘जरूरतमंद’ हो जाते हैं।
अब मैं भी जरूरतमंद हो गया था।
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जरूरतमंद हो जाने के ऐसे ही दौर में कड़ाके की ठंड पड़ी।
बीवी बीमार हो गई और डॉक्टर को दिखाने के लिए पैसे नहीं रहेे।
बेटा बोर्ड का इम्तहान देने वाला था और बकाया फीस अदा करने के लिए भी पैसे नहीं थे।
खानेदारी के सामान एक-एक कर खत्म होने लगे थे और खरीदारी के लिए पैसे कम होते चले गए थे।
जहां-जहां काम कर रहा था, पता करने पर मालूम हुआ कि एक जगह चेक नहीं बना है, दूसरी जगह ऑथराइज्ड पर्सन का ट्रांसफर हो गया है और तीसरी जगह फंड नहीं है।
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तीन में से जिस एक दफ्तर में, मैं काम कर रहा था, उसके छोटे साहब से, मैंने कुछ दिनों बाद फिर इशारों-इशारों में मुआवजे की अदायगी की इल्तिजा की।
इशारों-इशारों में बताया कि मुआवजे की अदायगी में अब बीस दिनों की देरी हो चुकी है और हालात बिगड़ने लगे हैं।
इशारों-इशारों में इल्तिजा करना मेरी आदत-सी बन गई थी।
खुलकर दरख्वास्त करने से जेहन में पल रहा स्वाभिमान का कीड़ा सरसराने लगता था।
सिर झुकने लगता था और आत्मसम्मान का ताज गिरता हुआ महसूस होने लगता था।
छोटे साहब ने पिछली बात दोहराई, ‘आपको देने के लिए फंड नहीं है। मैं बड़े साहब से बात करूंगा।’
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एक हफ्ते के इंतेजार के बाद मैं खुद बड़े साहब से मिला।
बड़े साहब से दरख्वास्त करते वक्त भी मेरे जेहन में स्वाभिमान का कीड़ा सरसरा रहा था।
आत्मसम्मान का ताज सिर से चिपका हुआ था।
बड़े साहब बोले, ‘फंड नहीं है। मैं छोटे साहब से बात करता हूं कि वो कोई उपाय करें।’
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इस बीच, दफ्तर की मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में रंगो-रोगन का काम शुरू हो गया था।
पुरानी दीवारों पर नये रंग चढ़ने लगे थे।
पेंट की खुशबू हर फ्लोर पर फैलने लगी थी।
मेरी नाक में वो खुशबू रच-बस-सी गई थी।
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बेटे के स्कूल से फीस जमा करने के लिए अल्टीमेटम आ गया था।
घर का सामान एक-एक कर खत्म हो चुका था।
बीवी की तबीयत और ज्यादा खराब हो गई थी। उसे बार-बार उल्टी होने लगी थी।
एक बार, संभलते-संभालते भी उल्टी उसने मेरे हाथ पर कर दी।
मुझे उल्टी की बदबू जरा भी महसूस नहीं हुई।
मेरी नाक में रंग-बिरंगे पेंट की खुशबू जो बसी थी!
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अगले रोज मैं दफ्तर पहुंचा तब मेरे पैर खुद-बखुद बड़े साहब के चौम्बर की तरफ बढ़ गए।
कॉरिडोरे से गुजरते वक्त छोटे साहब की नजर मुझपर पड़ी। वो मुस्कुराए।
उन्हें मेरा झुका हुआ सिर साफ नजर आ गया था।
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मैं जैसे-जैसे बड़े साहब के चौम्बर के करीब होता जा रहा था मेरे जेहन में सरसरा रहा स्वाभिमान का कीड़ा मरता जा रहा था।
आत्मसम्मान का ताज सिर से सरकने की फिक्र खत्म होती जा रही थी।
तभी पीछे से कुछ सरगोशियां बुलंद होती-सी महसूस हुईं।
कुछ सरगोशियां पंद्रह साल पुरानी थीं।
कुछ सरगोशियां नई-नई थीं।
नई-पुरानी सरगोशियां खिलत-मिलत हो गई थीं-
‘बहुत नाकारा है।’
‘बहुत काबिल है।’
‘बहुत बदहाल है।’
‘बहुत सलीकेमंद है।’
‘बहुत जरूरतमंद है, बहुत बेचारा है।’
‘बहुत स्वाभिमानी है, बहुत खुद्दार है।’
‘सिर उठाकर चलता है।’
‘सिर झुकाकर चल रहा है।
‘………………………’
‘………………………’
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25 जनवरी, 2025
9931098525
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