बदलते मौसम की तपिश
21वीं सदी की लोककथाएं-5
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सुबह-सवेरे उठा तो मामूल के मुताबिक़, चाय की तलब हुई।
याद आया, घर में कोई नहीं है। कल रात ही तमाम लोग, एक शादी में शिरकत के लिए, शहर से बाहर चले गए हैं। दो-तीन दिनों बाद ही आएंगे।
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मैंने किचेन का दरवाज़ा खोला और लाइट ऑन कर दी।
तमाम चीज़ें क़रीने से सजी हुई थीं।
गैस का रेगुलेटर ऑन किया। सस्पैन में दूध, चीनी और पत्ती मिलाई और आग पर चढ़ा दिया।
चाय उबलने लगी तो सस्पैन का हैंडल पकड़कर गैस स्टोव पर से हटाने लगा।
मैं जब भी चाय बनाता हूं, चाय उबलने पर बर्नर को धीमा करने के बजाय सस्पैन उठा देता हूं। इससे उबलती हुई चाय नीचे बैठने लगती है। कई बार की उबाल के बाद कप में चाय ढालता हूं।
ऐसा शायद मैं चाय दुकानों में बनती हुुई चाय को देखकर करने लगा हूं।
लेकिन इस वक़्त मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि सस्पैन उठाते वक़्त मेरी हथेली जलने क्यों लगी?
अभी कुछ दिनों पहले मैंने चाय बनाई थी, तब सस्पैन के हैंडल की तपिश मुझे अच्छी लग रही थी।
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मेरी नज़र किचेन के पारदर्शी शीशे वाली खिड़की की तरफ़ गई।
शीशे से छन कर रौशनी आने लगी थी।
मैंने खिड़की के पट खोल दिए। सामने वाले पेड़-पौधों और मकानों की दीवारों पर धूप फैलने लगी थी।
अब मुझे ख़्याल आया, चाय का सस्पैन उठाते वक़्त मेरी हथेली जलने क्यों लगी थी।
दरअसल, मौसम बदल चुका था। एक महीना पहले जब मैंने चाय बनाई थी, तब जाड़ा था। अब गर्मी का मौसम आ चुका था।
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ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो मुल्क का सियासी मौसम बदल जाने के तईं बेख़बर हैं।
उन्हें पता ही नहीं, सियासी मौसम के बदल जाने से समाज कितना बदल गया। समाजी रिश्तों में कितना बदलाव आ गया। कई नई चीज़ों ने जन्म लिया।
पिछले नौ बरसों में लव जिहाद, लैंड जिहाद, मॉब लिंचिंग, हेट स्पीच जैसे इस्तलाहात आम हुए। बाहया चेहरों से हिजाब हटा देने की कोशिशें हुईं। किताबों से इतिहास हटा दिए गए।
तीन तलाक़ पर रोक के लिए ग़ैर मुदल्लल क़ानून बनाया गया। सीएए-एनआरसी का जाल बिछाया गया। बाबरी मस्जिद से बेदख़ल कर दिया गया। कई नई मस्जिदों से बेदखल करने के लिए रास्ते खोल दिए गए। कॉमन सिविल कोड के लिए नये सिरे से बिसात बिछाई गई।
आला तालीम के लिए कई वज़ीफ़े बंद कर दिए गए। मदरसों और मदरसा तालीम को ख़त्म कर देने का सिलसिला शुरू हुआ। उर्दू ज़बान के वजूद पर ख़तरा मंडराने लगा। मस्जिदों-मज़ारों के सामने उत्तेजक नारे लगाने में शिद्दत आ गई। रामजी और हनुमानजी के चेहरे आक्रोश से भर दिए गए। अशोक स्तंभ के शेरों की मासूमियत ख़त्म कर दी गई। राज्यों की एसेम्बली-काउंसिल और पार्लियामेंट से नुमाइंदगी तेज़ी से घटने लगी। बरसों के पड़ोसी अजनबी होने लगे।
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ऐसे कितने लोग हैं, जो बदलते सियासी-समाजी रिश्ते की तपिश को महसूस कर रहे हैं?
ऐसे कितने लोग हैं, जो इस तपिश से अपनी आने वाली नस्लों को महफूज़ रखने की हिकमते अमली अख़्तियार कर रहे हैं?
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ज़्यादातर लोगों ने अपने घरों की खि़ड़कियां-दरवाज़े बंद कर रखे हैं।
और यक़ीनन, दिमाग़ के भी!
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सैयद जावेद हसन
1 मई, 2023
9931098525
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