कहां गई सरकार की कोरोना वारियर नीति, डाॅक्टरों की सेवा भावना और लंपटों की राष्ट्रभक्ति?
सैयद जावेद हसन
ज़िन्दगी और मौत के बीच झूलते मरीज़ को छोड़कर जूनियर-सीनियर डाॅक्टरों का हड़ताल पर चले जाना कोई नई बात नहीं है। संकट के समय ही अपनी मांगें मंगवाने के लिए इनका ये फं़डा पुराना हो चुका है। सरकार भी शायद ऐसे ही नाजुक वक़्त के लिए डाॅक्टरों की मांगों को लटकाए रखती है। भले की मरीज़ के लिए डाॅक्टर ‘भगवान’ का रुतबा रखते हों लेकिन सरकार चलाने वाले नेताओं और अफ़सरों के लिए उनकी हैसियत एक ‘कर्मचारी’ से ज़्यादा की नहीं होती।
यही वजह है, कोरोना संक्रमण के पहले चरण में डाॅक्टरों की खूब इज़्ज़त अफ़जाई हुई। उनपर हेलीकाॅप्टर से फूल बरसाए गए। उन्हें कोरोना वारियर कहा गया और सबसे पहले उन्हें ही टीका देने के योग्य समझा गया।
लेकिन दूसरी लहर आते-आते यह जज़्बा कमज़ोर पड़ गया। केन्द्र सरकार ने डाॅक्टरों को उनकी हैसियत बताने के लिए बाबा रामदेव को खुली छूट दे दी। रामदेव योग कर-करके एलोलैथी डाॅक्टरों को निशाना बना रहे हैं और सरकार ख़ामोश तमाशाई बनी है।
बिहार सरकार में भी मामला कुछ इसी तरह का है। प्रदेश में कोरोना संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए नीतीश सरकार ने एक 13 सदस्यीय एक्सपर्ट कमिटी बनाई है। कमिटी में बिहार के तीन मशहूर चिकित्सक डाॅ. सहजानंद, डाॅ. एसएन आर्या और डाॅ. विजय प्रकाश शामिल हैं। ये तीनों डाॅक्टर आईएमए के सदस्य भी हैं। कमिटी पर यह ज़िम्मेदारी है कि कोरोना की रोकथाम के लिए क्या-क्या किया जाए, इसपर विचार-विमर्श किया जाए। इसके लिए हर 15 दिनों पर कमिटी की बैठक होनी है।
भाजपा नेता और मंत्री मंगल पाण्डेय के नेतृत्व वाले स्वास्थ्य विभाग ने कमिटी की दो बैठकें कर लीं लेकिन इन तीनों डाॅक्टरों को ख़बर तक नहीं हुई। जब आईएमए बिहार के एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर डाॅ. अजय ने विभाग को पत्र लिखकर मौजूदा संकट के मद्देनज़र बैठक बुलाने और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को हस्तक्षेप करने की मांग की, तब विभाग ने आईएमए को ज़बरदस्त लताड़ लगाई। विभाग के ओएसडी डाॅ. बिमल कार्क ने उलटा यह कह दिया कि दो बैठकें हुई थीं और बैठकों में आइएमए के डाॅक्टर मौजूद थे। डाॅ. कार्क ने ग़लत ख़बर फैलाने को आरोप लगाते हुए चेतावनी दी कि आगे से ऐसे पत्र नहीं आने चाहिए। वहीं आईएमए के तीनों डाॅक्टर कह रहे हैं कि न उन्हें बैठक की ख़बर थी और न ही उन्होंने उसमें शिरकत की थी।
इसकी पूरी तफ़्सील 30 मई को पटना से प्रकाशित उर्दू अख़बार ‘इंक़्लाब’ में छपी है।
इसी रोज़ दैनिक जागरण की एक ख़बर मुलाहिज़ा फ़रमाइए। इसकी हेडलाइन है: ‘गांवों में पोस्टिंग तो 67 मेडिकल अफ़सरों में 22 ने छोड़ी नौकरी’ं।
ख़बर में बताया गया है कि कोरोना महामारी से निपटने के लिए बिहार सरकार मासिक 65 हजार रुपये पर एक वर्ष के लिए संविदा पर एमबीबीएस डिग्रीधररी डाॅक्टर को मेडिकल अफ़सर नियुक्त कर रही है। साक्षात्कार में क्वालीफाई करने के बावजूद कई डाॅक्टरों की गांवों में जाकर ‘जनसेवा’ करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। सभी शहरों में और बड़े अस्पतालों से जुड़े रहना चाहते हैं ताकि उन्हें ‘ब्रांड’ से जुड़े रहने का फ़ायदा मिलने के साथ-साथ अपनी अपनी क्लिनिक चमकाने में भी आसानी हो।
संकट की घड़ी में जनता की सेवा न करना शायद देशभक्ति या राष्ट्रभक्ति के दायरे में नहीं आता। ये दोनों चीज़ें जबरन ‘जय श्रीराम’ कहलवाने तक ही सीमित कर दी गई हैं। इसीलिए इन दिनों कोई भी लंपट देशभक्ति या राष्ट्रभक्ति का झंडा लेकर नहीं घूम रहा है।
लेखक बिहार लोक संवाद डाॅट नेट के चीफ़ एडिटर हैं।
Image source: India TV
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