बिहार के उर्दू अखबारों में क्यों छप रहा है सरकारी हिन्दी विज्ञापन?
सैयद जावेद हसन
पटना से प्रकाशित उर्दू दैनिक ‘क़ौमी तंज़ीम’ के 28 सितंबर, 2023 के अंक में एक ख़बर छपी थी। यह इस अख़बार की पहली ख़बर थी जिसकी हेडलाइन थी-
‘सरकारी इत्तलाआत को उर्दू में भी आम करें: नीतीश’
ख़बर बांका से थी जहां सीएम नीतीश कुमार सदर अस्पताल परिसर में नवनिर्मित मॉडल अस्पताल भवन का उद्घाटन करने के लिए गए हुए थे। इस मौके़ पर सीएम ने अधिकारियों को निर्देश दिया कि सरकारी सूचनाओं को हिन्दी के साथ उर्दू में भी आम लोगों तक पहुंचाएं।
यह खबर उर्दू के कई अन्य अखबारों में भी प्रकाशित हुई।
उर्दू अखबार में हिन्दी विज्ञापन
आम तौर से सरकारी सूचनाएं विज्ञापन के रूप में अखबारों में छपती हैं। विज्ञापन तैयार करने के लिए सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के तौर पर बिहार सरकार का लंबा-चौड़ा डिपार्टमेंट है। दूसरी तरफ, उर्दू प्रदेश की दूसरी राजकीय भाषा है। सरकारी सूचनाओं को उर्दू भाषा और लिपि में आम लोगों तक पहुंचाने का सबसे बड़ा माध्यम उर्दू अख़बार है। इसके बावजूद उर्दू अखबारों में सरकारी विज्ञापन उर्दू भाषा में प्रकाशित होते हैं। यह सिलसिला कई बरसों से जारी है। दिलचस्प बात है कि केन्द्र सरकार का विज्ञापन उर्दू अखबारों में उर्दू भाषा में ही प्रकाशित होता है।
कोई आवाज नहीं उठाता
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार डॉ. रेहान गनी कहते हैं कि इस साल उर्दू पत्रकारिता के दौ सौ साल पूरे गए। इस दो सौ साल की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि बिहार के उर्दू अखबार हिन्दी में सरकारी विज्ञापन प्रकाशित कर रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘चार-पांच साल से उर्दू अखबार वाले हिन्दी में सरकारी विज्ञापन छाप रहे हैं। अफसोस और हैरत इस बात की है कि इसके खिलाफ कहीं से कोई आवाज नहीं उठ रही है। बिहार में कई उर्दू तहरीक के नाम पर कई संगठन हैं। नीतीश से चादरपोशी कराने और उनकी मौजूदगी में दुआ करने के लिए कई खानकाहें हैं। लेकिन किसी को कोई मतलब नहीं। खुद उर्दू अखबार वालों की बेशर्मी देखिए। ये उर्दू की तरक्की के नाम पर उर्दू अखबार निकालते हैं लेकिन विज्ञापन हिन्दी में छापते हैं। क्या ऐसे ही उर्दू की तरक्की होगी?’
जनसंपर्क विभाग दोषी
पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. अनवारुलहोदा बताते हैं कि डिस्प्ले और क्लासिफाइड दोनों तरह के विज्ञापन सूचना एवं जनसंपर्क संपर्क में तैयार होते हैं। प्रकाशन के लिए वहीं से अखबारों को विज्ञापन भेजा जाता है। अनवारुलहोदा आगे बताते हैं, ‘पहले उर्दू अखबार वाले अपने स्तर से हिन्दी विज्ञापन का अपने यहां अनुवाद कराते थे। लेकिन प्रकाशन के बाद जब बिल के भुगतान का समय आता था तब विभाग के अधिकारी प्रकाशित विज्ञापन में कुछ कमी निकाल देते थे और भुगतान रोक देते थे। इसके बाद भुगतान के लिए लेन-देन का सिलसिला शुरू होता था। इससे तंग आकर अखबार वालों ने उर्दू में विज्ञापन छापना बंद कर दिया और विभाग से हिन्दी में बना-बनाया विज्ञापन छापने लगे। अब भुगतान में कोई समस्या नहीं होती। यह अलग बात है कि उर्दू आबादी उर्दू में सरकारी सूचनाओं से वंचित हो गई।
सीएम से मुलाकात करेंगे बुद्धिजीवी
उर्दू अखबारों का एक गंभीर पाठक वर्ग है जो इस मामले को लेकर चिंतित है। उसका मानना है कि हिन्दी में विज्ञापन छाप-छाप कर उर्दू अखबार वाले मोटी कमाई तो कर ले रहे हैं लेकिन नुकसान बहरहाल उर्दू भाषा का हो रहा है। उनतक सरकारी सूचनाएं उर्दू में नहीं पहुंच पा रही हैं। डॉ. अब्बास मुस्तफा और डॉ. अली फिरदौसी कहते हैं, ‘हम उर्दू वालों का एक शिष्टमंडल जल्द ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात करेगा। हम उनसे आग्रह करेंगे कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में जिस तरह हिन्दी में विज्ञापन तैयार होते हैं, उसी तरह उर्दू में भी सारे विज्ञापन तैयार हों। इसके लिए मुख्यमंत्री संबंधित अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश दें।
उर्दू के चालीस साल
उर्दू आबादी के लंबे आंदोलन के बाद बिहार में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिया गया था। इसके तहत 17 अप्रील, 1981 को जारी नोटिफिकेशन में तमाम सूचनाएं उर्दू में भी आम लोगों तक पहुंचाने की हिदायत दी गई थी। यह विडंबना ही है कि 40 साल बाद भी उर्दू वहीं पर खड़ी है। मुख्यमंत्री को कहना पड़ रहा है कि सभी उर्दू में भी प्रकाशित-प्रसारित हों। लेकिन सिर्फ कहने से नहीं होगा। मुख्यमंत्री को करना भी होगा। इसलिए कि बकौल रेहान गनी ‘लगता है जैसे उर्दू आबादी को ही उर्दू भाषा के विकास से कोई मतलब नहीं।’
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