इंजीर

21वीं सदी की लोककथाएं-3

मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन उतरा था और अबुल फ़ज़ल इंक्लेव जाने के लिए ऑटो की तरफ़ बढ़ गया था। ऑटो स्टैंड तक जाते-जाते कई ऑटो ड्राइवर मेरे पीछे-पीछे दौड़ पड़े थे।
किराया चार सौ से शुरू हुआ था और दो सौ रुपये पर आकर ‘डन’ हो गया था।
ड्राइवर उम्र दराज़ था। पूछने पर पता चला कि वह बिहार के पूर्वी चंपारण ज़िले के मोतिहारी का रहने वाला है।
मैंने पूछा, ‘चंपारण सत्याग्रह के बारे में कुछ पता है?’
बोला, ‘हमें सत्या-वत्याग्रह से मतलब! बस, दो वक़्त की रोटी मिल जाए, उसी की तलाश में 30 साल पहले यहां आ गया था।’
मैं दिल्ली के जिस किसी ड्राइवर से उसके आबाई वतन के बारे में पूछता हूं तो वह बिहार का ही बताता है।
समझ में नहीं आता, इतने बिहारी कहां से आ गए। बल्कि, कहां-कहां चले गए। इसका अंदाज़ा तब हुआ, जब कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान पूरे हिन्दुस्तान से लाखों बिहारी भूखे-प्यासे, नंगे पैर, सड़क और टेªन मार्ग से अपने वतन लौट चले।
……
रास्ते में ड्राइवर ने एक लाइन से खड़े ठेले वालों के पास ऑटो रोका।
ठेले पर फल बिक रहे थे। केले, अमरूद, अंगूर, इंजीर।
ड्राइवर ठेले पर से लौट कर आया और ठोंगे में से एक फल निकाल कर मुझे दिया।
‘लो खाओ।’
‘आप खाओ।’ मैं हिचकिचाया।
‘अरे चख कर देखो कैसा है। अपने बिहार में नहीं मिलता।’
‘इंजीर है, हर जगह मिलता है।’ मैं बोला।
दांत से फल का एक टुकड़ा काटते ही मुझे एहसास हुआ, मैं ग़लत था।
वह इंजीर नहीं, इंजीर जैसा कोई और फल था।
‘मीठा है।’ मैंने ड्राइवर को बताया।
अगली बार दूसरी तरफ़ से काटते ही मेरे मुंह से निकला, ‘ये तो फीका है।’
‘उसे फेंको, ये दूसरा लो।’ ड्राइवर ने हंसते हुए ठोंगे में से दूसरा पीस निकाल कर मुझे दिया।
इस बार मुझे वह फल हलका खट्टा लगा। लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं।
‘ये वाला कैसा है?’ ड्राइवर ने बड़े मज़े से तीसरा पीस चबाते हुए मुझसे पूछा।
‘ठीक है…..ये ठीक है।’ मैं जल्दी से बोला। इस डर से कि कहीं वह मुझे अपने हिस्सा का तीसरा पीस न थमा दे।
……..
रात को खाना खाने के बाद जब मैं जमाअते इस्लामी हिन्द के लम्बे-चौड़े कैम्पस में टहल रहा था, तब अचानक मुझे सुबह वाला फल याद आ गया। पहले मीठा, फिर फीका, फिर खट्टा।
मैं सोच रहा था, अबके रिश्तों की भी यही कैफ़ियत है।
हम बड़ी उम्मीदों, उमंगों और हौसलों से नये-नये रिश्तों से जुड़ते हैं। उन रिश्तों को खूबसूरत नाम देते हैं।
लेकिन ज़रा-सी कुरबत के बाद उन रिश्तों की असलीयत सामने आने लगती है।
हम ज़िंदगी भर बनते-बिगड़ते, छूटते-छुड़ाते रिश्तों के तजुर्बों से गुज़रते रहते हैं।
और हर रिश्ते की मिठास, फीकाफन, कड़ुवाहट और तल्खि़यों को समेटते हुए आखि़रकार ज़िंदगी की आखि़री मंज़िल पर पहुंच जाते हैं।

-सैयद जावेद हसन
4 मार्च, 2023

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