हाईकोर्ट का कैलंडर

21वीं सदी की लोककथाएं-– 1
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दफ़्तर के सिनीयर कलीग ज़ियाउल क़मर साहब ने हमारे कमरे में आकर पूछा, ‘पटना हाईकोर्ट का नये साल का कैलंडर चाहिए?’
मैंने फ़ौरन रज़ामंदी ज़ाहिर की, ‘हां, बिलकुल।’
मुझे इस कैलंडर का कई दिनों से इंतेज़ार था। कैलंडर की ख़ास बात ये है कि इसका आकार काफी बड़ा होता है और इसमें दर्ज तारीख़ें भी बड़े-बड़े डिजिट में अंकित होती हैं जिन्हें दूर से बैठे-बैठे देखा जा सकता है। इसके अलावा, अन्य सार्वजनिक छुट्टियों के साथ ही हाईकोर्ट के अवकाष का विवरण भी इसमें दिया होता है।
कैलंडर के प्रकाषन का हर किसी को इंतज़ार रहता है और कुछ लोग तो क़ीमतन भी लेने को तैयार रहते हैं। ज़ियाउल क़मर साहब के अपने कुछ सोर्सेज़ हैं जिनकी वजह से उन्हें एक-दो इज़ाफ़ी कापियां मिल जाती हैं जिन्हें वे अपने किसी ख़ास ज़रूरतमंद के दरमयान तक़सीम कर देते हैं। उनमें से एक मैं भी हूं।
ज़ियाउल क़मर साहब ने कैलंडर लाकर दिया तो मैंने शुक्रिये का इज़्हार करते हुए हिफ़ाज़त से रख लिया।
……..
शाम को घर जाते वक़्त मैंने कैलंडर को बाइक के वाइज़र पर रख दिया। रास्ते में बाज़ार से कुछ सामान ले जाने के लिए मैंने अपने बेटे शायान को घर से दफ़्तर बुला लिया था। वो बाइक पर मेरे पीछे बैठा था और उसके दोनों हाथों मंें सामान के बैग्स थे।
फ़ोल्ड किया हुआ कैलंडर वाइज़र पर किसी चीज़ से बंधा नहीं था, इसलिए मैं बाइक बहुत संभालकर चला रहा था। दाएं-बाएं मोड़ने पर कैलेंडर के फिसलकर गिरने का ख़तरा बार-बार पैदा हो रहा था।
……..
घर आकर मैं फ्ऱेश हुआ और चाय-नाश्ते में लग गया। शायान स्कूल का होमवर्क लेकर बैठ गया। बीवी से बातचीत के दौरान अगले महीने शबे बरात व होली की छुट्टियों और बच्चों की परीक्षाएं ख़त्म होने की तारीखे़ं देखने की ज़रूरत पड़ी तो अचानक मुझे हाईकोर्ट के कैलंडर का ख़्याल आया।
शायान घर में ढूंढ़ने लगा। नहीं मिला।
मेरे मुंह से अचानक निकला, ‘रास्ते में गिर तो नहीं गया।’
‘कहां ध्यान रहता है, संभाल कर लाना चाहिए था।’ बीवी को मौक़ा मिल गया।
मैंने शायान को कहा, ‘जल्दी से घर के आसपास देखकर आओ। हो सकता है, यहीं कहीं गिरा हो। रास्ते भर तो संभाल कर लाया था।’
शायान दौड़ा-दौड़ा बाहर गया। वापस आने पर उसके हाथ में कैलंडर देखा तो मैंने राहत की सांस ली।
‘लेकिन अब ये इस्तेमाल का नहीं रहा। पास वाले ख़ाली प्लॉट पर फेंका हुआ था।’ शायान ने कैलंडर अनफ़ोल्उ करते हुए कहा तो मैं चौंक पड़ा।
उजले साफ़-सुथरे कैलंडर के कुछ पन्ने पान और गुटखा के पीक से भरे थे।
‘आसपास के किसी गंवार ने कैलंडर खोलकर देखा होगा लेकिन उसे यह अपने किसी काम का नहीं लगा तो इसपर गुटखा थूक दिया।’ बीवी आगे कह रही थी, ‘वह चाहता तो कैलंडर को अपने घर में टांग देता। नहीं तो वहीं पर लपेट कर रख देता यह सोच कर कि जिसका होगा, ले जाएगा। ना-क़द्रा कहीं का।’
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मैं सोच रहा था कि मैं उस कैलेंडर का क़द्रदान था, मुझे उसकी जरूरत भी थी, लेकिन मेरी ज़रा सी लापरवाही ने साल भर तक चलने वाली उस बेहद अहम चीज़ को रद्दी में तब्दील कर दिया। अब उस शख़्स को क्या कहा जाए, जिसे वही अहम चीज़ बिना किसी मेहनत और ख़्वाहिश के मिली लेकिन उसे उस चीज़ की अहमीयत समझ में नहीं आई और वह उसकी ना-क़द्री कर बैठा।
ये ना-क़द्री सिर्फ़ एक कैलंडर की नहीं है। आज सरकार, समाज, संस्थान और संबंध………हरेक चीज़ की ना-क़द्री हो रही है। जो समझदार और ज़रूरतमंद हैं वो लापरवाह हो रहे हैं और जो अयोग्य और ना-क़द्रे हैं, उनके हाथों में आकर ये तमाम चीज़ें महत्वहीन होकर रद्दी में तब्दील होती जा रही हैं।

– सैयद जावेद हसन
20 फ़रवरी, 2023

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