नीतीश के मुस्लिम विहीन मंत्रिमंडल का मतलब क्या है?

सैयद जावेद हसन, मुख्य संपादक

16 नवंबर को जब नीतीश कुमार और उनके सहयागी मंत्री पद की शपथ ले रहे थे, तब उस चेहरे का इंतेजार किया जा रहा था जो बिहार का अगला अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री हो सकता था।

कयास लगाया जा रहा था कि चूंकि एनडीए का एक भी विधायक मुसलमान नहीं है, इसलिए किसी मुस्लिम एमएलसी को अल्पसंख्यक कल्याण विभाग की जिम्मेदारी सौंपने के लिए शपथ दिलाई जा सकती है। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

17 नवंबर जब जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार समेत 15 मंत्रियों के विभागों का बंटवारा हुआ, तब अल्पसंख्यक कल्याण विभाग डाॅ. अशोक चैधरी की झोली में चला गया।

Image credit: indianexpress

 

क्या ये सब महज इत्तेफाक है? नहीं, ये कैलकुलेटेड है। इसे समझने के लिए 18 नवंबर को अंग्रेजी दैनिक हिन्दुस्तान टाइम्स का संपादकीय पढ़िये। संपादकीय में कहा गया है, ‘बिहार में एनडीए को 243 में से 125 सीट हासिल हुई है। लेकिन इस वर्डिक्ट का एक काबिले गौर पहलू भी है। एनडीए के घटक दल में से किसी भी पार्टी का एक भी मुस्लिम विधायक नहीं है। बिहार में मुसलमानों की आबादी 17 मिलियन से ज्यादा है। तीन साल पहले, भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 403 में से 312 सीट पर जीत दर्ज की थी। लेकिन उसमें एक भी मुसलमान नहीं था। उत्तर प्रदेश में 40 मिलियन मुसलमान हैं। यहां की विधानसभा में कुल 24 विधायक हैं।’

विधान सभा चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान इस बात की चर्चा थी कि भाजपा वाले कहीं बिहार को भी उत्तर प्रदेश न बना डालें। सीट के मामले में तो ऐसा नहीं हुआ, अलबत्ता सरकार का चाल-चरित्र कुछ-कुछ वैसा नजर आने लगा है। इसमें से एक है मुसलमानों पर यह जाहिर करना कि ‘हमारी नजर में आपकी हैसियत क्या है’।

इसे आप इस तरह समझिये। वीआईपी पार्टी एनडीए का हिस्सा है। उसके चार उम्मीदवार जीत कर आए हैं। लेकिन पार्टी अध्यक्ष मुकेश सहनी चुनाव हार गए। इसके बावजूद सहनी को मंत्री पद की शपथ दिलाई गई। उन्हें पशु एवं मत्स्य संसाधन विभाग की जिम्मेवारी सौंपी गई है। सहनी अभी दोनों में से किसी सदन के सदस्य नहीं हैं। उन्हें आने वाले दिनों में बिहार विधान परिषद् का सदस्य बनाया जाएगा ताकि वे मंत्री बने रह सकें।

दूसरी तरफ, नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड के छह मुस्लिम एमएलसी अभी मौजूद हैं। इनमें गुलाम रसूल बलियावी, कमर आलम, गुलाम गौस, तनवीर अखतर और खादिल अनवर शामिल हैं। लेकिन इनमें से किसी को भी मंत्री बनाना गवारा नहीं किया गया। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि भाजपा और आरएसएस कैडर वालों के बीच एक मुस्लिम चेहरा ‘सूट’ नहीं कर रहा था।

इस बार के चुनाव में सिर्फ 19 मुसलमान विधान सभा के लिए चुने गए हैं। इनमें 8 राष्ट्रीय जनता दल के हैं जिसके कुल विधयकों की संख्या 75 है। कांग्रेस के 4, एआईएमआईएम के 5, वामदलों के 16 में से 1 और बहुजन समाज पार्टी के 1 मुसिलम एमएलए हैं। जदयू ने 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा था लेकिन किसी को भी जीत नसीब नहीं हुई। यहां तक खुर्शीद आलम उर्फ फीरोज भी, जो नीतीश की पिछली सरकार में अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री थे, चुनाव हार गए। एनडीए के अनय घटक दलों भारतीय जनता पार्टी, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा और वीआईपी ने चुनाव में किसी मुसलमान को खड़ा नहीं किया था।

2015 में 24 मुस्लिम विधायक थे। उतने ही जितने आज उत्तरप्रदेश में हैं।

बिहार मंत्रिमंडल का विस्तार अभी होना बाकी है। अभी नीतीश समेत 15 मंत्री हैं। सदन की कुल सदस्य संख्या के अधिकतम 15 प्रतिशत मंत्री बन सकते हैं। इस हिसाब से 243 विधायक वाले सदन में मुख्यमंत्री समेत सत्ताधारी गठजोड़ के 36 सदस्य मंत्री बन सकते हैं।

देखा जाए तो एनडीए के 125 सदस्य हैं। इनमें जदयू के 43, भाजपा के 74, हम और वीआईपी के 4-4 विधायक हैं इस हिसाब से जदयू के 14 (हम सहित) और भाजपा के 22 विधायक (वीआईपी सहित) मंत्री बन सकते हैं।

फिलहाल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार समेत जदयू के 6 मंत्री हैं। सहयोगी ‘हम’ को भी एक जगह मिल चुकी है। जदयू में अब 7 और मंत्री बन सकते हैं। भाजपा के 7 मंत्री हैं। सहायोगी ‘वीआईपी’ को 1 बर्थ मिल गई है। भाजपा अपने 14 विधायकों को मंत्री बना सकती है।

इस तरह आने वाले दिनों में जब सत्ता की मलाई बंटेगी तो उसमें मुसलमान नहीं होगा। खैरात बंटी भी तो किसी एक मुसलमान को मिलेगी। यानी कुल 36 में 1, वह भी बेजुबान बन कर या फिर पूर्व अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री फीरोज की तरह जय श्री राम के नारे लगाकर।

मुसलमानों के ताल्लुक से बिहार की वर्तमान परिस्थिति पर हिन्दुस्तान टाइम्स ने अंत में कहा है कि, ‘भाजपा को बहुसंख्यकवाद का नारा बुलंद करने में कोई झिझक महसूस नहीं होती। भाजपा के उभार की वजह से मुसलमान राजनैतिक सत्ता से दूर होते चले गए हैं। गैरा भाजपाई पार्टियां यह सोच कर मुसलमानों को अपना उम्मीदवार नहीं बनातीं कि इससे मतदाता पोलराइज होंगे। वे मुस्लिम उम्मीदवारों का समर्थन भी नहीं करतीं जिसकी वजह से उनका प्रतिनिधित्व घटता चला जा रहा है। यह परेशान करने वाली परिस्थति है। अगर देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय का चुनावी लोकतंत्र में विश्वास घटने लगे तो इससे जहां एक तरफ अतिवाद को बढ़ावा मिलेगा वहीं दूसरी ओर उन्हें बहुत से अधिकारों से वंचित भी किया जाने लगेगा। राजनैतिक दलों, विशेषकर भाजपा को, इस परिस्थिति को बदलना होगा।’

लेकिन क्या मुसलमान खुद भी अपनी सोच और व्यवहार में बदलाव लाने के लिए तैयार हैं?

 

 

 

 

 

 

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