विकसित बिहार के लिए मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं ने जारी किया जन घोषणापत्र

बिहार लोक संवाद ब्यूरो

पटना: विधान सभा चुनाव से ठीक पहले प्रदेश की मुस्लिम धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं ने विकसित बिहार के सपने को साकार करने के लिए विभिन्न राजनैतिक दलों से कई ठोस कदम उठाने की मांग की है।

पटना में जन घोषणापत्र जारी करते हुए मुस्लिम धर्मगुरुओं ने साफ-सुथरे चरित्र वाले उम्मीदवारों को टिकट दिए जाने की मांग की। उन्होंने कहा कि आज सबसे बड़ी चुनौती लोकतंत्र, लोकतांत्रिक संस्थाओं और धर्मनिरपेक्षता को बचाए रखने की है। धर्मगुरुओं ने कहा कि पिछले कुछ अरसे से लोगों के मन में उनकी नागरिकता छीन लिए जाने का डर बैठाया जा रहा है जिसका विरोध हरेक पार्टी को करना चाहिए।

जन घोषणापत्र में प्रदेश में सांप्रदायिक सौहार्द्र का माहौल बनाए रखने, शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ब्लू प्रिन्ट जारी करने, स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी के लिए सर्विस को चुस्त-दुरुस्त करने, किसानों के लिए आपदा राहत कोष स्थापित करने, प्रवासी श्रमिकों के लिए रोजगार नीति बनाने और मनरेगा के अन्र्तगत 300 दिन के रोजगार की गारंटी देने की मांग की गई है।

जन घोषणापत्र में विभिन्न दलों से प्रदेश के अल्पसंख्यकों के लिए भी विशेष रूप से कुछ मांगें की गई हैं। इनमें पर्सनल लाॅ, तथा अन्य धार्मिक रीति-रिवाज का संरक्षण करने, मानक मदरसा शिक्षा हेतु मदरसा शिक्षा आयोग की स्थापना करने, उर्दू के विकास के लिए ‘उर्दू डेवलपमेंट बोर्ड’ कायम करने, वक्फ़ संपत्ति का संरक्षण करने और अल्पसंख्यक योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने की मांगें शामिल हैं।

जन घोषणापत्र जारी करने के दौरान जमीयत उलेमाए हिन्द, बिहार के महासचिव, हुस्न अहमद कादरी, अमारते शरीया, बिहार के कार्यकारी सचिव मो. शिबली कासमी, जमाअते इस्लामी हिन्द, बिहार के प्रदेश अध्यक्ष मौलाना रिजवान अहमद इस्लाही, एदारा-ए-शरीया, बिहार के संरक्षक सैयद मोहम्मद सनाउल्लाह, जमीयत अहले हदीस के प्रदेश उपाध्यक्ष खुर्शीद अहमद मदनी, आॅल इंडिया मुस्लिम मजलिसे मुशावरत, बिहार चैप्टर के महासचिव अनवारुल होदा और मजलिसे उलेमा व खुतबा व इमामिया, बिहार के सहायक सचिव एकराम अब्बास रिजवी मौजूद थे।

 

यहां देखें सपूर्ण जन घोषणापत्र

बिहार विधान सभा चुनाव 2020 के अवसर पर
मुस्लिम धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं की ओर से जारी जन घोषणापत्र

भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश है। भारतीय संविधान की धारा 38 में एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा प्रस्तुत की गयी है और इसे सरकार की जिम्मेवारी करार दिया गया है कि वह न केवल नागरिकों के बीच बल्कि विभिन्न समुदायों के बीच भी सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं को दूर करने की कोशिश करे।

बिहार की गिनती एक पिछड़े और अशिक्षित राज्य की श्रेणी में आज भी हो रहा है। दूसरे राज्यों की तुलना में बिहार आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है। विशेष रूप से यहाँ की अल्पसंख्यक आबादी सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रही है। इसके अलावा, यहाँ की जनता हर समय प्राकृतिक आपदा जैसे- बाढ़-सुखाड़ की मार झेलती रहती है।

इन कमियों के बावजूद बिहार की धरती शांति के लिए विश्व में प्रसिद्ध है। यहाँ दुनिया के कई महान धर्मगुरुओं ने क़दम रखे हैं। सभी धर्मों के बीच आपसी सद्भाव का माहौल रहा है। इसका संरक्षण और संवर्द्धन भी राज्य के विकास के लिए ज़रूरी है।

बिहार की धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाएँ राज्य के विकास में योगदान करती रही हैं। सरकार के रचनात्मक और सुधारवादी कार्यों में बढ़-चढ़ कर सहयोग करती रही हैं। हालांकि सरकार की ग़लत नीतियों पर शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करती रही हैं तथा गंभीर एवं आलोचनात्मक टिप्पणियों से संबंधित मुद्दों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट भी करती रही हैं ।

इन दिनों धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं की छोटी-बड़ी यूनिटें पूरे राज्य में सक्रिय हैं। आम जनता विशेष कर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच इनका अच्छा प्रभाव भी है। ये संस्थाएं सरकार के कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुँचाने का काम भी करती हैं।

इन धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं का बिहार की राजनीतिक पार्टियों से अपील है कि वह राज्य की उन्नति, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और सामप्रदायिक सौहाद्र्र आदि जैसे अहम मुद्दों पर विशेष ध्यान दे। इसके अलावा अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों की समस्याओं पर विशेष ध्यान देकर उसको विकास की दौड़ में शामिल किया जाए।

बिहार के मुसलमानों की आबादी लगभग 17 प्रतिशत है। सीमांचल के कई जिलों में इनकी आबादी 70 प्रतिशत तक है। लोक सभा से लेकर विधान सभा चुनाव तक में वे बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। इसके बावजूद उपकी गिनती पिछड़ी आबादियों में की जाती है। इसके कई कारण हैं।
सबसे बड़ा कारण यह है कि विधान सभा हो या लोक सभा, इसमें उनकी भागीदारी लगातार घटती जा रही है। पिछले विधान सभा चुनाव 2015 में कुल 243 सीटों में केवल 24 मुस्लिम उम्मीदवार चुने गए।

दूसरा कारण, कमजोर उम्मीदवार का चुन कर आना है। जो लोग मुसलमानों का प्रतिनिधि बन कर आते हैं उनकी वफादारी पार्टी और पार्टी आलाकमान के प्रति अधिक होती है, मुस्लिम समस्याओं के प्रति कम। इससे पता चलता है कि राजनीतिक पार्टियां ऐसे व्यक्तियों को टिकट देती हैं जो पार्टी का प्रतिनिधित्व करे मतदाता का नहीं।

तीसरा कारण मुसलमानों से संबंधित समस्याओं के प्रति ब्यूरोक्रेसी में उदासीनता है। देखा गया है कि ब्यूरोक्रेट्स मुस्लिम समस्याओं को लटकाए रखते हैं, उसका समाधान या तो विशेष परिस्थितियों में निकालते हैं या फिर अधर में ही छोड़ देते हैं। उदाहरण के लिए, उर्दू अकादमी और उर्दू सलाहकार समिति में अध्यक्ष और सचिव का पद काफी दिनों से रिक्त है। इस कारण उर्दू की उन्नति में व्यवधान उत्पन्न हो रहा है। इसी तरह वक्फ संपत्ति के संरक्षण और अल्पसंख्यक योजनाओं के क्रियान्वयन का मामला है। इन मुद्दों पर कार्रवाई में सुस्ती जग जाहिर है।
चैथा कारण मुसलमानों को विभिन्न समस्याओं में उलझाए रखना है। उदाहरण के लिए, क़ब्रिस्तान और मस्जिद की जमीन पर अवैध कब्जा, समय-समय पर उन्हें साम्प्रदायिक हिंसा का निशाना बनाया जाना, समाजिक रूप से अलग-थलग करके उन्हें मानसिक रूप से कमजोर करने की कोशिश करना, आदि।

इन हालात में जरूरी है कि राजनीतिक पार्टियाँ ऐसे उम्मीदवार को टिकट दें जो न केवल स्वच्छ छवि का हो, बल्कि उसमें अल्पसंख्यकों से संबंधित मुद्दों पर बोलने, पार्टी आलाकमान को अल्पसंख्यकों की समस्याओं से अवगत कराने का साहस हो तथा अल्पसंख्यकों में राजनैतिक एवं सामाजिक आत्मविश्वास बढ़ाने की भावना भी हो। ऐसे उम्मीदवारों की जरूरत है जो प्रतिनिधित्व हासिल करके अपने हितों के लिए काम न करता हो बल्कि आम जनता के चहुंमुखी विकास के बारे में सोचता भी हो और व्यवहारिक रूप से काम भी करता हो।

बिहार की धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाएं इस बात को महसूस करती हैं कि कमजोर प्रतिनिधित्व या नेतृत्व राज्य की उन्नति में भी कोई रोल अदा नहीं कर सकता है। इसलिए धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाएं बिहार में 17 प्रतिशत मुसलमानों को मउचवूमत करने के साथ-साथ ‘बेहतर प्रतिनिधित्व वाली अबादी’ की वकालत करती हंै ताकि बिहार के विकास में वे समुचित भूमिका निभा सकें।

इसके साथ ही हम राज्य में ऐसी सरकार चाहते हैं जो निम्नलिखित मुद्दों पर विशेष ध्यान दे, न केवल उन्हें अपने घोषणापत्र में शामिल करे बल्कि सरकार में आने के बाद उन्हें शत् प्रतिशत क्रियान्वित भी करे।

1. नागरिकता की रक्षा की गारंटी
आम लागों की सबसे बड़ी समस्या अभी नागरिकता की है। वत्र्तमान समय में जिस तरह से ब्।।ए छच्त्ए छत्ब् के द्वारा लोगों की नागरिकता को लेकर उनके अन्दर डर और असुरक्षा की भावना पैदा कीे गई है, उसे जल्द से जल्द दूर करने की ज़रूरत है। इसके मद्देनज़र हम माँग करते हैं कि-
1. राज्य में जिस भी पार्टी की सरकार बने वह देश में रह रहे लोगों की नागरिकता को प्रभावित करने वाले केन्द्र के किसी भी कानून और कदम का मुखर होकर विरोध करेगी और लोगों की नागरिकता को प्रभावित नहीं होने देगी।
2. सीएए और एनआरसी को लागू न करने के साथ-सथ एनपीआर के किसी भी रूप को प्रदेश में लागू न किया जाए।

2. लोकतंत्र की रक्षा तथा लोकतांत्रिक संस्थानों का स्थायित्व
पिछले कई वर्षों में धीरे-धीरे देश के तमाम लोकतांत्रिक संस्थान कमजोर होते चले गए हैं। इससे लोकतंत्र को खतरा पैदा हो गया है। गठबंधन से चलने वाली राज्य सरकार अक्सर ऐसे मुद्दों परं केन्द्र सरकार के विरोध में आवाज उठाने से हिचकिचाती है। हमारी माँग है कि-
1. जो पार्टी सत्ता में आए, वह लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए। लोकतांत्रिक संस्थाओं को मज़बूत और सक्रिय बानाए।
2. लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए भारत के संविधान का पूर्णतः संरक्षण करे। केवल हमारा वोट दे देना ही लोकतन्त्र या प्रजातन्त्र नहीं है। सभी मामलों में प्रजातांन्त्रिक कार्यशैली अपनाना भी लोकतंत्र की एक निशानी है।

3. धर्मनिर्पेक्षता की मज़बूती के लिए रणनीति
संविधान के अनुसार हिन्दुस्तान एक धर्मनिरपेक्ष देश है। धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की जड़ें यहां काफी मजबूत हैं। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को निशाना बनाकर इन्हें कमजोर करने और निरर्थक बनाने की कोशिशें की गई हैं। स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली पार्टियां भी, अपने स्वार्थ को देखते हुए, खुल कर धर्मनिरपेक्षता की बातें करने से बचने लगी हैं। ऐसी परिस्थिति में धर्मनिरपेक्षता के वजूद पर एक बड़ा खतरा मंडलाता हुआ दिख रहा है। बिहार धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का केन्द्रस्थल रहा है। ऐसी परिस्थिति में बिहार की धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का कत्र्तव्य है कि वे धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को स्थिरता प्रदान करने की चेष्टा करंे। हमारी माँग है कि-
1. राजनीतिक पार्टियाँ जिस तरह चुनाव के समय जाति, भाषा और भौगोलिक आधार को ध्यान में रखते हुए चुनावी रणनीति अपनाती हैं, इसमें वे धर्मनिरपेक्ष मुल्यों और परंपराओं को भी ध्यान में रखें।
2. कट्टर और धार्मिक रूप से संकीर्ण लोगों को टिकट न दें।

4. पर्सनल लाॅ, तथा अन्य धार्मिक रीति-रिवाज का संरक्षण
भारत में विभिन्न धर्मों और उनके तहत जीवन से लेकर मृत्यु तक के रीति-रिवाज पर अमल करने वाले करोड़ों लोग रहते हैं। यही भारत की सुन्दरता है। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में सबको एक ही रंग में रंगने का प्रयास शुरू हुआ है। मुसलमानों के पर्सनल लाॅ में सरकार की ओर से छेड़-छाड़ का प्रयास किया गया है। इसके तहत तीन तलाक जैसा ग़ैर ज़रूरी क़ानून लाया गया। राज्य सरकार अपने वादे और स्पष्ट विचारधारा के बावजूद न केवल चुपचाप रही बल्कि मौन समर्थन भी किया। अब काॅमन सीविल कोड लागू करने की बात हो रही है। हम मानते हैं कि यह कदम भारत के तमाम अल्पसंख्यकों विशेष कर मुसलमानों की पहचान को मिटाने की एक गहरी साज़िश है। मुसलमानों का पसर्नल लाॅ उनकी धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान की गारंटी देता है। मुसलमान इसमें हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं कर सकते। अतः हम माँग करते हैं कि-
1. राजनीतिक पार्टियाँ काॅमन सीविल कोड के बारे में अपनी स्थिति स्पष्ट करें।
2. जब कभी केन्द्र की ओर से काॅमन सिविल कोड लागू करने की बात की जाए तो सत्ताधारी दल इसका कड़ा विरोध करे।
3. राजनीतिक पार्टियाँ मुसलमानों के लिए काॅमन सिविल कोड और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए प्रचलित धार्मिक रीति-रिवाजों का समर्थन करें।
4. राज्य सरकार पर्सनल लाॅ के संरक्षण को सुनिश्चित करे, इसमें छेड़-छाड़ न करे और न ही छेड़-छाड़ करने वाली सरकारों का समर्थन करे।

5. शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ब्लू प्रिन्ट
वत्र्तमान वैश्विक संक्रमण ने शिक्षा व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। लगभग सात माह के लाॅक डाॅन और अनलाॅक के कारण जहाँ एक ओर प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा प्रदान करने वाली संस्थाएँ बन्द हैं, वहीं बच्चों में शिक्षा प्राप्त करने करने की रुचि भी प्रभावित हुई है। शैक्षणिक सत्र गड़बड़ होने के कारण बच्चों के केरियर पर भी काफ़ी गहरा असर पड़ा है। बिहार पहले से ही शिक्षा के मामले में दूसरे राज्यों से पीछे है। वत्र्तमान परिस्थिति ने तो इसकी कमर ही तोड़ कर रख दी है। ऐसे में हम राजनीतिक दलों से यह मांग करते हैं कि-
1. गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर ब्लू प्रिन्ट लाया जाए।
2. विशेष रूप से महिलाओं, कमजोर वर्गों और अल्पसंख्यकों की शिक्षा को बेहतर बनाए जाने से सम्बिन्धित कार्यक्रम और रणनीति को स्पष्ट किया जाए।
3. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना के तहत हर पंचायत में गल्र्स स्कूल की स्थापना की जाए।
4. लाॅकडाॅन के फलस्वरूप कोई भी बच्चा ड्राप आउट न हो यह सुनिश्चित किया जाए।
5. निजि शिक्षा संस्थाओं को आर्थिक तंगी से निकालकर पटरी पर लाने में सरकार उनका सहयोग करे।
6. बिहार के विश्वविद्यालयों की सीनेट और सिंडिकेट में प्रदेश की प्रतिष्ठित धार्मिक संस्थाओं के प्रतिनिधित्व को अनिवार्य किया जाए।

6. मानक मदरसा शिक्षा हेतु मदरसा शिक्षा आयोग की स्थापना
बिहार में मदरसा शिक्षा लंबे समय से राजनीतिक पाखंड का शिकार है। हर सरकार कुछ मदरसों कीे स्वीकृति और मदरसा शिक्षक के वेतन मद में राशि का आवंटन तो करती है लेकिन सच्चाई यह है कि मदरसा शिक्षा के स्तर में गिरावट ही देखी जा रही है। नवीन पाठ्यक्रम की बात हुई थी लेकिन आज तक पूर्ण रूप से पाठ्यपुस्तक तैयार नहीं हुई। बच्चों को समय पर पुस्तकें नहीं मिल पातीं। इससे अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता प्रभावित हुई है। राज्य में ऐसे बहुत से मदरसे हैं, जो बंद होने के कगार पर हैं। एक ओर अवकाश प्राप्त शिक्षकों के रिक्त पदों पर नये सिरे से नियुक्ति नहीं हो रही है तो दूसरी ओर शहरी क्षेत्रों के बच्चे मदरसा में दाखि़ला नहीं ले रहे हैं। इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक दलों से हमारी मांग है कि-
1. मदरसा शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए मदरसा शिक्षा आयोग की स्थापना की जाए। मदरसा शिक्षा आयोग शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए अपनी भूमिका निभाएगा।
2. नई शिक्षा नीति में मदरसा शिक्षा का स्पष्ट रूप से ज़िक्र नहीं है। राज्य में नई सरकार बनाने वाली पार्टियाँ मदरसा शिक्षा की भूमिका को नई शिक्षा नीति में शामिल कराएं।
3. मदरसा में शिक्षारत बच्चों को पाठ्यपुस्तकें समय पर उपलब्ध कराई जाएं।
4. मदरसा के जर्जर भवनों का नवनिर्माण किया जाए।
5. मदरसा शिक्षकों को समय पर वेतन का भुगतान किया जाए।

7. उर्दू के विकास के लिए ‘उर्दू डेवलपमेंट बोर्ड’
बिहार में लगभग चालीस वर्षों से उर्दू को द्वितीय राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। लेकिन गज़ट नोटिफ़िकेशन के अनुसार आज तक यह पूर्ण रूप से लागू नहीं हो सका। इसका मुख्य कारण सरकार की अरुचि और अफ़सरों की संकीर्णता रही है। आज हज़ारों की तादाद में उर्दू टीचर के पद ख़ाली हैं, स्कूलों में उर्दू यूनिटों पर अन्य विषय के शिक्षक पदस्थापित हैं, उदू शिक्षकों से दूसरे विषय पढ़ाए जा रहे हैं। उर्दू माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों को उर्दू भाषा एवं लिपि में पुस्तकें उपलब्ध नहीं कराई जा रही हैं। हद तो ये है कि उर्दू संस्थानों में उर्दू पदाधिकारियों के पद वर्षों से ख़ाली हैं जिनमें बिहार उर्दू अकादमी और उर्दू परामर्शदातृ बोर्ड शामिल हैं। इस परिस्थिति में हमारी मांग है कि-
1. बिहार में उर्दू को सही मायनों में द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने के लिए इसे मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा) से अलग किया जाए और एक पृथक ‘उर्दू डेवलपमेंट बोर्ड’ की स्थापना की जाए। ये निकाय पूरी तरह से स्वतंत्र और स्वशासी होगा।
2. हमारी यह भी मांग है कि नई शिक्षा नीति के अंदर मातृभाषा के काॅलम में उर्दू को जगह दी जाए और मैट्रिक के अनिवार्य विषय में उर्दू को शामिल किया जाए।
3. उर्दू भाषा एवं साहित्य का विकास करने से संबंधित संस्थाओं की कार्यसमिति का पुनर्गठन करके साफ़-सुथरे चरित्र वाले लोगों का चयन करके रिक्त पदों को भरा जाए।
4. उर्दू और बांग्ला टीईटी उम्मीदवारों के साथ इंसाफ़ करते हुए जल्द से जल्द उनकी शिक्षक के रूप में नियुक्ति की जाए।
5. उर्दू माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों को उर्दू भाषा एवं लिपि में पाठ्यपुस्तकें समय पर उपलब्ध कराई जाएं।
6. उर्दू आबादी के लिए मैट्रिक तक उर्दू की शिक्षा को अनिवार्य किया जाए।
7. उर्दू को कार्यालय के कामों के लिए उपयोगी बनाया जाए।
8. हरेक थाना में उर्दू कर्मियों को नियुक्त किया जाए ताकि उर्दू आबादी से संबंध रखने वाले लोगों को शिकायत दर्ज कराने में परेशानी न हो।

8. वक्फ़ संपत्ति का संरक्षण
बिहार में वक़्फ़ संपत्ति की कमी नहीं है लेकिन वक़्फ़ संपत्ति में भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ी समस्या है। वक़्फ़ की ज़मीन पर आम से लेकर ख़ास लोग तक क़ाबिज़ हैं। अगर वक़्फ़ की ज़मीन पर से अवैध क़ब्ज़ा हटा दिया जाए तो मुसलमानों की तरक़्क़ी का एक बहुत बड़ा रास्ता खुल सकता है। इस उद्देश्य से हमारी मांग है कि-
1. व़क़्फ़ संरक्षण एक्ट को बिहार में कठोरता से लागू किया जाए।
2. वक़्फ़ की जायदाद की पहचान के लिए सर्वेक्षण में तेज़ी लाई जाए।
3. सर्वे रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए, उसे शीया-सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की वेबसाइट पर अपलोड किया जाए।
4. वक़्फ़ की संपत्ति पर से अवैध क़ब्ज़ा हटवाने में ज़िला प्रशासन सुन्नी और शीया वक़्फ़ बोर्ड का सहयोग करे।
5. वक़्फ़ की संपत्ति पर से अवैध क़ब्ज़ा हटाने में असफल सरकारी पदाधिकारियों को दंडित किया जाए।
6. दोनों वक़्फ़ बोर्ड के कामकाज की निगरानी के लिए सोशल आॅडिट की वस्यवस्था की जाए।
7. वक़्फ़ की आमदनी से अल्पसंख्यकों के लिए शैक्षणिक एवं आर्थिक विकास की व्यापक योजना बनाई जाए।
8. वक़्फ़ संपत्ति को वाक़िफ़ की मंशा के अनुसार ही उपयोग में लाया जाए।

9. अल्पसंख्यक योजनाओं का सुनिश्चित क्रियान्वयन
राज्य सरकार हर हाल दावा करती है कि अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के अन्तर्गत फंड में बढ़ोतरी कर दी गई है लेकिन एक सच्चाई यह है कि फंड का उपयोग ईमानदारी से नहीं किया जाता है। काफ़ी पैसा बिना खर्च किये ही लौटा दिया जाता है जबकि रोजगार लगाने के लिए आवेदनकत्र्ता कर्ज के इंतेज़ार में बैठे रह जाते हैं। अल्पसंख्यक विद्यालयों को दूसरे विद्यालयों की तरह विकास योजनाओं के अन्तर्गत कई प्रकार का फंड नहीं दिया जाता है। इन हालात में हमारी मांग है कि-
1. अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के अन्र्तगत आवंटित राशि को साल भर के अन्दर खर्च किया जाए।
2. अल्पसंख्यकों के लिए आवंटित राशि के व्यय में पारदर्शिता लाई जाए।
3. अल्पसंख्यक वित्तीय निगम से बेरोजगार अल्पसंख्यक युवकों को स्वरोजगार के लिए आवेदन देने के एक माह के अन्दर कर्ज मुहैया कराया जाए और क़र्ज़ हासिल करने की शर्तों को आसान बनाया जाए।
4. रोजगार के लिए कर्ज की उपलब्धता में अल्पसंख्यक महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए।
5. अनेक स्थानों पर पहले से निर्मित अल्पसंख्यक छात्रावास की इमारतों के सही तरीक़े से रख-रखाव की व्यवस्था की जाए।
5. अल्पसंख्यकों से संबंधित संस्थानों और बोर्डों में बिहार की मुस्लिम धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया जाए।
6. अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए अल्पसंख्यकों के द्वारा चलाए जा रहे शैक्षणिक संस्थानों को अल्पसंख्यक फ़ंड से वार्षिक खर्च का कम से कम 25 प्रतिशत अनुदान के रूप में उपलब्ध कराया जाए।

10 सांप्रदायिक सौहार्द्र
राज्य के विकास के लिए साम्प्रदायिक सौहार्द्र अत्यावश्यक है। पिछले कई वर्षों में देश और स्वयं राज्य में साम्प्रदायिक समरसता के माहौल को बिगाड़ने और आपस में भेद-भाव पैदा करने की ओछी चेष्टा की गई है जिसकी वजह से सुख-शांति और विधि-व्यवस्था पर भी असर पड़ा है। सामप्रदायिक विद्वेश से हमारी गंगा-जमुनी परम्पराओं, विशेषकर हिन्दू-मुस्लिम एकता को काफ़ी नुक़सान पहुंचा है। अतः आने वाली सरकार से हमारी माँग है कि-
1. साम्प्रदायिक दंगे भड़कने और इसपर त्वरित रोकथाम में लापरवाही बरतने वाले स्थानीय प्रशासन से लेकर स्थानीय थाना, एसपी और डीएम तक को जवाबदेह बनाया जाए।
2. जवाबदेह सरकारी कर्मचारियों के विरूद्ध सख़्त अनुशासनिक कार्यवाही की जाए।
3. पुलिस प्रशासन के ढ़ांचे में परिवर्तन लाया जाए। अल्पसंख्यकों को उनकी आबादी के अनुपात में पुलिस सेवा में नियुक्त किया जाए।
4. दंगे का बीज बोने वाले असामाजिक तत्वों को कड़ी सजा दी जाए।

11. स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी के लिए सर्विस पर जोर –
कोविड-19 ने बिहार में स्वास्थ्य सेवा की बदहाली को भी उजागर कर दिया है। पटना एम्स से लेकर पीएमसीएच और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक बुरा हाल है। लोगों को दवाएँ नहीं मिल पातीं, रोगियों की चिकित्सकों और स्वास्थ्य कर्मचारियों से शिकायतें बदस्तूर क़ायम हैं, स्वास्थ्य केन्द्र पर चिकित्सा का बुनियादी ढांचा मौजूद नहीं है। बारिश के दिनों में आईसीयू में बाढ़ जैसा दृश्य रहता है। स्वास्थ्य कर्मियों को समुचित सुविधा उपलब्ध नहीं है। वेंटीलेटर की कमी का एहसास प्रत्येक नागरिक को है। इस परिस्थिति को बदलने और बेहतर बनाने के लिए हम सरकार बनाने वाली पर्टियों से मांग करते हंै कि –
1. चिकित्सा व्यवस्था को सस्ता और चुस्त-दुरूस्त बनाया जाए।
2. अस्पतालों में डाॅक्टर, नर्स और दूसरे स्वास्थ्य कर्मियों की उपस्थिति तथा मुफ़्त दवा एवं अन्य सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।
3. स्वास्थ्य कर्मियों को अनिवार्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएं।
4. जनसंख्या के अनुपात में आईसीयू और वेंटीलेटर युक्त स्वास्थ्य केन्द्रों में वृद्धि की जाए।
5. ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को बेहतर बनाया जाए।
6. प्रदेश में आयुष चिकित्सा पद्धति का विकास किया जाए और पटना तिब्बिया काॅलेज की तर्ज पर अन्य जिलों में भी तिब्बिया काॅलेज की स्थापना की जाए। बीयूएमएस डाक्टरों को प्राथमिकता के आधार पर नौकरी दी जाए।
7. अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित स्वास्थ्य केन्द्रों को विशेष अनुदान दिया जाए।

12. किसानों के लिए आपदा राहत कोष
बिहार की धरती प्राकृतिक रूप से उपजाऊ है लेकिन आम बिहारी किसान काफी बदहाल हैं। कभी बाढ़, कभी सुखाड़, तो कभी ओलावृष्टि से उनकी फसल प्रभावित होती है। बैंक से उन्हें आसानी से कर्ज नहीं मिल पाता है। किसी-किसी फसल की एमएसपी भी नहीं मिल पाती। हाल के दिनों में बिहार के मक्का किसानों को मक्का का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने और दाम में अंतर को दूर करने के लिए आवाज उठाई गई। इस प्रकार की और भी परेशानियों के कारण किसानों का झुकाव खेती की ओर कम होता जा रहा है। इन परिस्थितियों को देखते हुए हम मांग करते हैं कि-
1. प्रधान मन्त्री द्वारा 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के वादे को पूरा करने के लिए राजनीतिक पार्टियाँ केन्द्र पर दबाव डालें।
2. किसानों के पक्ष में एमएस स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओं को पूर्ण रूप से लागू कराने के लिए राजनीतिक दल केन्द्र सरकार पर दबाव डालें।
3. फसल के नुकसान पर किसानों की मदद के लिए आपदा राहत फंड स्थापित किया जाए।
4. छोटे किसानों को बैंक से कर्ज उपलब्ध कराने में तेजी लाई जाए।
5. बिहार की बुनियादी अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है इसलिए कृषि में विविधता लाई जाए और प्रौद्योगिकी के जरिये इसका विकास किया जाए। इसी के साथ कृषि उत्पाद से संबंधित उद्योग स्थापित करने में पहल की जाए।

13. प्रवासी श्रमिकों के लिए रोजगार नीति
कोविड-19 महामारी और लाॅकडाउन ने प्रवासी मजदूरों की समस्याओं को पूरी तरह उजागर कर दिया है। सरकार दावा करती रही है कि बिहार का विकास हो रहा है। इसके लिए वह ऐसे आंकड़े पेश करती रही जो यह दर्शाता है कि दो वक्त की रोटी-रोजी का इंतेजाम करने के लिए बिहार से दूसरे राज्यों में बिहारी श्रमिकों के जाने की संख्या में कमी आई है और उन्हें बिहार में ही रोजगार मिल रहा है। लेकिन लाॅकडान के दौरान प्रवासी बिहारी श्रमिकों की वापसी ने यह सिद्ध कर दिया है कि लाखों की संख्या में बिहार के लोग बाहर जाने को मजबूर हैं। राज्य सरकार ने बिहार में ही प्रवासी श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कराने का दावा किया था लेकिन वह भी पूरा होता हुआ नजर नहीं आ रहा है। हम सत्ता में आने वाली पार्टियों से मांग करते हैं कि –
1. प्रवासी श्रमिकों की बिहार वापसी, पुनर्वास, और रोजगार की उपलब्धता के लिए स्पष्ट नीति तैयार की जाए।
2. प्रवासी मजदूरों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के लि लघु और कुटीर उद्योग को बढ़ावा दिया जाए।

14. मनरेगा के अन्र्तगत 300 दिन रोजगार की गारंटी
ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के अन्तर्गत बेरोजगारों को रोजगार का अवसर प्रदान किया जाता है। फिलहाल 100 दिनों का रोजगार लोगों को उपलब्ध कराया जाता है, लेकिन यह अपर्याप्त है। केन्द्र सरकार इसे बढ़ाकर 150 से 200 दिन करने पर विचार कर रही है। कोरोना वायरस और लाॅकडाउन के कारण उत्पन्न बेरोजगारी के मद्देनजर हमारी मांग है कि-
1. मनरेगा के अन्र्तगत ग्रामीण लोगों को एक वर्ष में कम-से-कम 300 दिनों का रोजगार सुनिश्चित किया जाए।
2. श्रमिकों के पारिश्रमिक में पारदर्शिता लाई जाए और भ्रष्टाचार को समाप्त किया जाए।
3. मनरेगा के तहत बड़ी संख्या में महिलाओं को भी रोजगार उपलब्ध कराया जाए।

 

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