ब्यूटी बॉक्स
21वीं सदी की लोककथाएं-6
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सैयद जावेद हसन
कचरा उठाने वाली गाड़ी के आने का वक़्त हो चला था और लोगों ने अपने-अपने घर का कचरा दरवाजे़े के बाहर रखना शुरू कर दिया था।
ज़ेबा कुछ देर पहले ही एक बड़े से कैरी बैग में कचरा अपार्टमेंट के मेन गेट के पास रख आई थी।
मैंने अपने फ़्लैट की बालकनी से नीचे देखा।
हमारे ऊपर-नीचे और सामने के फ़्लैट में रहने वालों ने भी अपने घर के कचरे मेन गेट के पास रख दिये थे। किसी ने डस्टबिन में, किसी ने पॉलीथिन के पैकेट में तो किसी ने बाल्टी में।
हरे रंग की बाल्टी पर नज़र पड़ते ही मैं हल्के से चौंक पड़ा।
बाल्टी पर पुराना सा ब्यूटी बॉक्स रखा हुआ था।
बाल्टी में यक़ीनन कचरा होगा और उसी कचरे पर ब्यूटी बॉक्स रखा हुआ थाा, कचरा उठाने वाली गाड़ी के हवाले कर देने के लिए।
हरे रंग की बड़ी-सी इस बाल्टी को मैं पहचानता था। इसे अक्सर देखता रहा हूं। हमारे सामने वाले फ़्लैट में रहने वाली किरायेदार इसी बाल्टी में कूड़ा फेंकती हैं।
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ब्यूटी बॉक्स को देखते हुए मेरे दिल में तरह-तरह के ख़्यालात आ रहे थे। अजीब-सी फीलिंग्स थी।
मैं कमरे में गया। मोबाइल लेकर वापस बालकनी में आया और कई एंगल से तस्वीरें लेने लगा।
पीछे से जे़बा की आवाज़ आई, ‘कितना खूबसूरत ब्यूटी बॉक्स है। सामने वाली किरायेदार की शादी के वक़्त का लगता है।’
‘लेकिन इस यादगार चीज़ को कचरे में फेंकते हुए उन्हें कोई अफ़सोस नहीं हुआ।’ मैंने तस्वीरें लेते हुए आगे कहा, ‘उनकी शादी को दस साल ही तो हुए हैं। बहुत पुराना भी नहीं है। अब भी अच्छी कंडिशन में है।’
‘मैं तो कभी न फेंकती, चाहे पचास साल भी क्यों न हो जाते’, ज़ेबा बोली, ‘अपनी शादी हुए बीस साल हो गए। लेकिन अपना ब्यूटी बॉक्स मैंने कहां फेंका? मेरा ब्यूटी बॉक्स इससे छोटा है और सस्ता भी।’
‘हां, ये बहुत खूबसूरत भी है।’ मैंने कहा। फिर सोचने लगा: पता नहीं क्यों उन्हें इसे कचरे में फेंकते हुए कोई मलाल नहीं हुआ। इसमें वो अपनी चूड़ियां रखती होंगी। मेकअप के सामान सजाती होंगी। इसके अंदर लगे आईने में अपना चेहरा देखती होंगी। अलग-अलग ज़ाविये से मुस्कुराती होंगीं।
सोच के दायरे से निकलते हुए मैंने आगे कहा, ‘लगता है उन्हें अपने इस ब्यूटी बॉक्स से ज़रा भी जज़्बाती लगाव नहीं।’
‘हर कोई आपकी या मेरी तरह नहीं होता जिसे अपनी पुरानी चीज़ों से जज़्बाती लगाव हो।’ ज़ेबा बोली, ‘हालांकि मेरा ब्यूटी बॉक्स अब मेरे किसी लायक़ नहीं। लेकिन शहज़ीन उसमें अपनी तरह-तरह की चीज़ें ज़रूर रखती है।’
लम्हा भर के लिए ज़ेबा रुकी। फिर आगे बोली, ‘सामने वाली भी चाहतीं तो अपने ब्यूटी बॉक्स को इस्तेमाल में ला सकती थीं। इसमें फ़र्स्ट एड का सामान रखतीं। उनकी बेटी नर्सरी में पढ़ती है। वह अपने पढ़ने-लिखने या खेलने का सामान रखती! छोटी-सी तो चीज़ है। कमरे में कहीं भी रखी जा सकती थी।’
मेरी नज़रें लगातार ब्यूटी बॉक्स पर ही टिकी थीं। मैंने उदास-से लहजे में कहा, ‘सामने वाली कम से कम यह तो सोचतीं कि उनकी मां ने कितने अरमान से इसे खरीदा होगा। पता नहीं उस वक़्त उनके पास उतने पैसे थे या नहीं। हो सकता है, बेटी ने खुद ही अपनी शादी के लिए इसे पसंद किया हो। लेकिन आज उन्हें यही बोझ और बेकार-सी शै लगने लगा।
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मुझे तीस-पैंतीस साल पुराना वाक़्या याद आ गया। मेरी छोटी बहन की अचानक शादी हो गई थी। उस वक़्त मैं उसे कुछ दे नहीं पाया था क्योंकि तब हालात अच्छे नहीं थे। कुछ दिनों बाद हालात कुछ बेहतर हुए तो मैंने एक ब्यूटी बॉक्स ख़रीद कर उसे दिया। वह ब्यूटी बॉक्स आज भी उसके पास है। मैं जब भी उसके यहां जाता हूं, वो ब्यूटी बॉक्स लाकर मेरे सामने रख देती है। बड़े फ़ख्ऱ से कहती है, ‘देखिये, आपकी दी हुई यादगार। संभाल कर रखा है मैंने।’
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कचरा उठाने वाली गाड़ी की आवाज़ दूर से आने लगी थी। फिर क़रीब होती गई।
ड्राइवर ने गाड़ी को कॉलोनी के आखि़री सिरे पर रोक दिया।
गाड़ी से नगर निगम का मुलाज़िम उतर कर एक-एक कर घरों के सामने रखे डस्टबिन को उठाता, गाड़ी में कचरा डालता और डस्टबिन वापस घर के सामने रख देता।
ज़ेबा कह रही थी, ‘तीन साल पहले सामने वाली के पास गिनती के सामान थे। शौहर बाहर कमाने गया और पैसा आने लगा तब घर में नये-नये सामान आने लगे। लेकिन आपने एक बात महसूस की? अब वो पहले जैसी नहीं रहीं। अब न तो उनका पहले जैसा अख़लाक़ है और न ही बर्ताव।’
मैंने सर हिलाकर हामी भरी।
आखि़र में नगर निगम का मुलाज़िम हमारे अपार्टमेंट की तरफ़ आया। उसने बारी-बारी से कचरे को गाड़ी में रखना शुरू किया। आखि़र में एक हाथ में हरे रंग की बाल्टी उठाई, दूसरे में भूरे रंग का ब्यूटी बॉक्स।
कहते हैं, खूबसूरत चीज़ें हमेशा खूबसूरत ही रहती हैं।
जैसे, कोई खूबसूरत औरत भले ही उम्र ज़्यादा क्यों न हो जाए।
जैसे, कोई खूबसूरत इमारत भले ही खंडहर में क्यों न तब्दील हो जाए।
जैसे, ये ब्यूटी बॉक्स भले ही इसे कचरे में फेंकने लायक़ क्यों न समझ लिया गया हो।
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कचरे वाली गाड़ी अब लौटने लगी थी। हम दोनों बालकनी पर ही खड़े थे।
नीचे से गाड़ी गुजर रही थी। गाड़ी पर रखा ब्यूटी बॉक्स हिलता-डोलता हमारी आंखों से दूर होता जा रहा था।
मैंने नीचे दरवाज़े के पास देखा।
ऊपर-नीचे के फ़्लैट में रहने वाले अपने-अपने डस्ट बिन उठाकर ले जा चुके थे।
रह गई थी सिर्फ़ हरे रंग की वह बाल्टी। ख़ाली बाल्टी।
मैंने पलट कर ज़ेबा की तरफ़ देखा।
उसकी आंखें भी, मेरी तरह, ख़ाली थीं।
लेकिन पता नहीं क्यों दोनों की ख़ाली-ख़ाली सी आंखों में कुछ ऐसे जज़्बात थे, जो उमड़ रहे थे।
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बालकनी से हटते वक़्त मैं सोच रहा था कि कुछ लोगों के लिए रिश्ते भी, एक वक़्त के बाद, दिलों से निकाल कर फेंक दिए जाने लायक़ होते हैं।
ऐसे लोगोें के लिए वो रिश्ते किसी काम के नहीं होते।
वो जज़्बात जो कभी बड़े क़ीमती हुआ करते हैं, एक वक़्त के बाद, उनकी अहमीयत ख़त्म हो जाती है।
ऐसे ही जज़्बों और रिश्तों के दायरे से कभी हम बाहर कर दिए जाते हैं, कभी आप!
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23 नवंबर, 2023
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